अपेक्षा उपेक्षा की जननी है। किसी से कुछ भी न चाहने पर हम पराधीन न होकर सदा स्वाधीन रहते हैं। संसार से कुछ भी चाहना स्वयं को पराधीन बनाना है। दूसरों की चाहत पूरी करने से अपनी चाहत के त्याग की सामर्थ्य आती है। अपने स्वार्थ की ही इच्छा से अपनी चाहत के त्याग की सामर्थ्य नष्ट होती है.....
बनवारी रे.....जीने का सहारा तेरा नाम रे......
बनवारी रे.....जीने का सहारा तेरा नाम रे......
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